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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

गुप्त सामर्थ्य

मनुष्यको अपने गुप्त तेज और महान् सामर्थ्यका तबतक ज्ञान नहीं होता, जबतक उसे आत्मभावकी चेतना या अपने अन्दर बैठे हुए पवित्र आत्मतत्त्वका बोध न हो जाय। आध्यात्मिक दृष्टिकोणको अपनाने और अपनेको आत्मा मानने, ईश्वरका अंश स्वीकार करनेसे मनुष्यका आध्यात्मिक विकास होने लगता है।

अपनेकी आत्मा माननेसे मनुष्यको ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह अन्धकारसे ज्ञानके दिव्य प्रकाशमें आ गया हो अथवा घोर सुषुप्ति से वह जागृतिमें आ गया हो।

'सोऽहम्' अर्थात् मैं आत्मा हूँ-वेदान्त-ग्रन्थों में आत्माको जाननेका यह सबसे सरल और असंदिग्ध साधन बताया गया है।

'मैं हाथ हूँ, मैं पाँव हूँ, मैं गुदा हूँ, मैं सिर हूँ या मैं हाड़-मांसका शरीर हूँ'-ये सब उक्तियाँ मिथ्या हैं। भ्रममें डालनेवाली हैं। 'मैं शरीर नहीं हूँ, मैं तो आत्मा हूँ। सत्-चित्-स्वरूप आत्मा हूँ।' यही सच्चा ज्ञान है। यही वह भावना है जो हृदयमें जमानी चाहिये। 'मैं आत्मा हूँ' (सोऽहम्) इसके जप, ध्यान और सतत अभ्यास से मनुष्यकी आत्मामें स्थिति होने लगती है और वह अनात्म (क्षूद्र और क्षणिक) वस्तुओंसे अपने-आपको पृथक् करने लगता है। जब आप पूर्ण विश्वाससे कहते है मैं आत्मा हूँ, तब इस मन्त्रके जपसे आपके चारों ओर चैतन्यता बढ़ानेवाला एक वातावरण बन जाता है। आपके शरीर, मन और वाणीमें चैतन्यताका संचार होने लगता है। सत्त्वगुणोंका संचार आपकी नस-नसमें हो जाता है। सात्त्विक कम्पनोंसे आप अपने सामर्थ्यकी वृद्धि करते हैं। सत्त्वगुण से सद्ज्ञान उत्पन्न होता है-'सत्त्वात् सञ्जायते ज्ञानम्' जिन क्षुद्र बातों, सांसारिक क्लेशों पर उथले व्यक्ति दुःख भोगते हैं, लड़ते-झगड़ते हैं वे आत्म-परिचय सम्पन्न व्यक्ति को तुच्छ और सारहीन मालूम होने लगते हैं। कारण, वह अपनी आत्मामें स्थिर हो जाता है और उसके विक्षेप, उद्वेग और भ्रम नष्ट हो जाते हैं तथा वह अपने ईश्वरत्वमें निवास करता है।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण को अपनानेका एक लाभ यह है कि मनुष्यका स्तर साधारण मनुष्योंसे ऊँचा उठ जाता है। प्रकृतिके नियमानुसार जब उसपर रजस् और तमस् का वेग आता है, तब-तब वह भय, चिन्ता और उद्वेगसे हताश नहीं होता। अन्दरसे उसे सन्तोष रहता है कि उसकी गुप्त आत्मशक्ति उसकी सहायता करेगी।

आत्माकी दिव्य शक्तियोंको विकसित करनेका हमें पूर्ण प्रयत्न करना चाहिये। हमारी आत्मामें सत्य, प्रेम, न्याय, शान्ति, स्थिरता, अहिंसा और आनन्दकी अजस्त्र धारा प्रवाहित हो रही है। यदि हम अपने-आपकों आत्मा मानें यो निम्न सांसारिक पदार्थोंकी नश्वरता देखकर हमें वैराग्य हो जायगा। वियोग, हानि, नाश आदिसे बहुत कम मानसिक दुःख होगा, दुःख-निवारण होकर आत्मसन्तोषकी भावना स्थिर होगी। रात्रिमें बुरे स्वप्नों का नाश हो जायगा। आत्मभावका विस्तार होनेसे दूसरोंके प्रति हमारा भाव प्रेम, सद्भाव, ईमानदार, सेवाका व्यवहार हो जायगा। हम आत्म-निरीक्षण सीख जायँगे, जिसके द्वारा हमारी कुप्रवृत्तियोंका नाश होगा और हम मानसिक शान्ति प्राप्त करेंगे। हमारे चित्तकी स्थिरता प्राप्त होगी और हम इन्द्रिय-संयममें सम्पन्न होंगे। चित्तकी स्थिरतासे आयु बढ़ेगी और शरीर नीरोग होगा। दृढ़ता-परिश्रमशीलता आयेगी। बुद्धि परिमार्जित होगी। निश्चय जानिये, आत्मिक दृष्टिकोण अपनाने से आपको जीवनके समस्त उच्च आनन्द प्राप्त हो जायेंगे, ईश्वरत्वकी प्राप्ति होगी और सत्-चित्-आनन्दकी उच्च स्थितिमें आपका निवास रहेगा। ये समस्त सिद्धियाँ सांसारिक पुरुषोंको प्राप्त नहीं होतीं।

हमारी आत्मामें असंख्य शक्तियों इसलिये दी गयी है कि हम साधारण मनुष्यों और पशुओंसे ऊपर उठें। इन्द्रियोंके मनोविकारोंसे बचे रहें। ये दिव्य शक्तियों अज्ञानवश हमारे अन्तर्मनमें सुप्त पड़ी हुई है। केवल ध्यान और अभ्यास द्वारा उन्हें जाग्रत् भर करनेकी आवश्यकता है। ध्यानके बिना हम अपनी उस शक्तियोंपर चित्तको एकाग्र नहीं कर सकते। अतः हमें अपनी उच्च शक्तियोंका अधिकाधिक प्रयोग करते रहना चाहिये।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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